सेवाभावी, श्रद्धावान और समर्पित समर्थक व्यक्ति को राष्ट्र व समाज का सिरमौर बना देते हैं। जबकि इसके विपरीत असहयोगी, अवसरवादी, स्वार्थी और चाटुकार सत्ता सिंहासन से उतरवा देते हैं। यहां कहना यह है कि सच्चे साथी, सेवक सचिव वही जो सच कहने में कोई संकोच न करें। क्या गलत है और क्या सही? नीति कितनी सार्थक है, जनहितैषी है या फिर है अनीति? यह बताने में सेवक, सचिव, साथी और समर्थकों को अपने अग्रज की कभी हां में हां नहीं मिलाना चाहिए। इसमें स्वार्थ आड़े नहीं आना चाहिए। कहा भी गया है सचिव वैद्य गुरू तीन जौं प्रिय बोलहिं भय आस! राज धर्म तनु तीन करि होहिं बेगहिं नास! अर्थात सचिव यदि किसी भयवश अथवा स्वार्थ के कारण केवल अच्छा ही अच्छा बोलता है तो राजा की राजसत्ता हाथ से चली जाती है। वैद्य यदि सही इलाज के बजाए भय बिल्ली अथवा स्वार्थ के कारण केवल मीठा-मीठा ही बोलता है लेकिन रोग मिटाने वाली कड़वी दवा नहीं नहीं देता तो तन का नाश होता है और गुरूजी भी यदि भयवश अथवा लोभवश सत्य के बजाए केवल मीठा-मीठा ही बोलते हैं तो धर्म सलाहकारों की हानि सुनिश्चित है।
वर्तमान परिस्थितियों पर गौर करें तो ये दौर अनजाना और स्वार्थ सिद्धि का दौर है जिसमें व्यक्ति अपने आका की हर बात में सिर्फ हां में हां मिला रहा है। स्वार्थी शुभचिंतकों का बढ़ता समूह । 'साहब' को झांकने नहीं देता अपनी 'रूह'! अर्थात 'साहब' की 'दाढ़ी' में भले ही तिनका हो लेकिन उनके इर्द-गिर्द कोई इतना हिम्मतदार नहीं कि उन्हें आईना दिखा सके। हालात ऐसे हैं कि 'साहब' ने कहा ऊंट को बिल्ली चुराकर ले जा रही है तो सबके सब हां! हां जी! कहने में लगे हैं। ये बात ठीक नहीं है। इससे 'साहब' का तो नुकसान है ही, राष्ट्र और समाज का भी बुरा हाल होना है। लिहाजा देश को सदा से अच्छे शुभचिंतकों व सलाहकारों की जरूरत है।