जब लग रही हो 'तुम्हारी' एक झलक पाने की होड़ तब ऐसा कुछ मत करिए कि हो जाए भंडाफोड़!

मानव हृदय भाव प्रधान है। इसमें ईश्वरीय आस्था के अंकुर फूटते हैं और भजन-भक्ति उद्घाटित होती है। तब भक्ति भाव से भरे श्रद्धावानों की श्रद्धा किसी पाषाण प्रतिमा अथवा तपोनिष्ठ साधकों के श्रीचरणों में समर्पित होने लगती है। सनातन श्रद्धालुओं की इसे अटूट श्रद्धा ही कहिए कि एक साधारण से मनुष्य को गुरू जगद्गुरू मानकर उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के मानिंद मानने लगते हैं। उनके दर्शन व पादुकापूजन के लिए उतावले होते हैं। तब श्रद्धावानों की श्रद्धा से सम्मानित साधु-संतों, महंतों को और भी सतर्क हो जाना चाहिए कि वे सच में तो क्या...स्वप्न में भी ऐसा कोई कृत्य न करें जिससे कि आस्थावानों की आस्था आहत हो। जब लग रही हो 'तुम्हारी' एक झलक पाने की होड। तब ऐसा कुछ मत करिए कि हो जाए भंडाफोड़! अर्थात समाज में जब तुम्हारा आदर्श स्थापित हो जाए और लोग भगवान की तरह पूजने लगें तब 'सिद्ध-साधक' के हर काम में पारदर्शिता दिखनी चाहिए। जीवन शैली में ऐसा कोई कर्म ही न हो जिससे कि आस्थावानों में भ्रम उत्पन्न हो। और लोगों में तुम्हारे बारे में कोई अनर्गल वार्तालाप शुरू हो जाए। इस मामले में सद्गुरू बिलकुल सच कहते हैं कि हम जितने निर्मल, धवल समाज के बीच में दिखने की कोशिश करते हैं उतना ही पवित्र हमारा एकांत भी होना चाहिए। यह सिद्धांत केवल आस्थावानों के लिए ही नहीं है बल्कि विशेष रूप से उन साधक-सिद्धों के लिए भी है जो हजारों-हजार श्रद्धावानों के हृदय में बस रहे हैं। देखो ये 'धर्मवानो' ऐसा काम न करो...राम-रहीम का नाम बदनाम न करो...। ये बात किसी का हास-उपहास उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि सचेत करने के लिए है। सावधान हो जाने के लिए है। क्योंकि शास्त्र कहते हैं 'काम' कब किस पर झपट्टा मार दे इसकी कोई उम्र नहीं होती। क्रोध कब क्रूर बन जाए और कब कौन लोभ-लालच में फंस जाए कहा नहीं जा सकता। जीवन में व्याधियों का पहाड़ खड़ा करने वाला मोह कब किसको मोहित कर ले बताया नहीं जा सकता। इसलिए सावधान रहिए, संयमित रहिए और सचमुच के साधक-साधु और श्रद्धावान बनिए।