जीवन मुक्ति की एक ही युक्ति जगत छोड़ जगदीश की भक्ति!

हमारी पूजन पद्धति चाहे जो भी हो। हमारा इबादत का अंदाज जो कुछ भी हो, लेकिन यह यथार्थ है कि इस संसार का प्रत्येक मानव मुक्ति चाहता है। यहां मुक्ति का तात्पर्य मरणोपरांत का विषय नहीं है, बल्कि मुक्ति का अर्थ मनुष्य के अंदर शत्रु बनकर बैठे दुख-दारिद्रय से मुक्ति! लोभ, मोह, काम, क्रोध आदि विकारों से मुक्ति। सच में यही वो शत्रु हैं, जो मनुष्य के दुर्लभ जीवन को उद्देश्यहीन बना देते हैं। हमारी लाख कोशिशों के बावजूद हम लोभ-मोह आदि विकारों से छूट नहीं पाते। इसी कारण से हमारे जीवन मे दुख-दारिद्रय पसर जाते हैं। कहा भी गया है- मोह सकल व्याधिन करि मूला...। अर्थात इस जगत की नश्वर वस्तुओं के प्रति मनुष्य का मोह ही है जो उसे तमाम व्याधियों के पहाड़ तले खड़ा कर देता है और हम चाहकर भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाते। जो कि हमारा वास्तविक अधिकार है। वैसे इसके लिए शास्त्र और संत यही कहते हैं- जीवन मुक्ति की एक ही युक्ति। जगत छोड़ जगदीश की भक्ति! अर्थात मुक्ति के लिए एक युक्ति की जरूरत है। जिसके लिए हमें इस संसार से विरक्त भाव रखकर भगवान के श्रीचरणों में आसक्त होना होगा। उनकी अविरल भक्ति करनी होगी। यहां भगवान की भक्ति से आशय है अपने अंदर के विकारों, दुव्र्यसनों पर विजय प्राप्ति का अभियान। झूठ, कपट, पाखण्ड को पराजित करने का संकल्प और उसको साकार करने की कर्तव्य निष्ठा। भक्ति मार्ग में वो लोग भूल में हैं, स्वयं धोखे में हैं, जो सिर्फ पूजन-अनुष्ठान या कंठी-माला जपने मात्र को भक्ति मानकर स्वयं को भक्त समझ रहे हैं।
    हमारी पूजा का फल और जप तप का फल तभी है जब हम मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं। हमारा हृदय अभय है और हम सदा सत्य के मार्ग पर चलते हैं। ऐसे ही सज्जनों की भक्ति फलित होती है जो सदा सद्चरित्र और निवयशील हैं। यह तो प्राचीन पौराणिक काल से लेकर अब तक अनेकानेक बार जांचा-परखा गया है कि भक्ति से ही जीवन मुक्ति मिलती है। लेकिन जो भक्ति करके भी जीवन समाधान नहीं खोज पाए हैं वो जब स्वयं के अंदर झांककर देखते हैं तो उन्हें अपने में ही कोई विकार नजर आ जाता है। उन विकारों को साफ करिए और एक बार पुन: भगवान की भक्ति में जुट जाइए, तुम्हारा कल्याण होगा और तुम्हारे साथ-साथ जगत का भी कल्याण होगा।