पुण्यों की पोटली लेकर स्वर्ग मत जाओ इस धरा पर ही पुण्यों की फसल उगाओ!
इस संसार में सभी मनुष्य पुण्य नहीं करते। लेकिन जो करते हैं वे अपने पुण्यों को संग्रहित कर स्वर्ग जाने की आकांक्षा रखते हैं। क्योंकि उन्होंने ऐसा मान लिया है कि इस चेतन जगत में स्वर्ग ही सबसे बड़ी वस्तु है। शायद यही एक वजह कि जब कोई यह संसार छोड़ता है तो सनातन धर्मावलंबी उससे दान-पुण्य करवाते हैं और उसकी मृत्यु उपरांत यही कहते हैं वह स्वर्गवासी हो गया।


यहां पुण्य और स्वर्ग का नाता इसलिए कि पुण्य स्वर्ग में प्रवेश का परिमाण है। जिस तरह सिनेमाघर में लोग टिकिट लेकर प्रवेश करते हैं और अवधि समाप्त होते ही बाहर निकल आते हैं, ठीक वैसे ही लोग पुण्य लेकर स्वर्ग जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर पुन: धरती पर आ जाते हैं। ऐसा शास्त्र व पुराणों में प्रमाण है। अब जब ऐसा ही है कि पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से लौटकर पुन: धरती पर आना पड़ता है तो पुण्यवानों के लिए एक राय है- पुण्यों की पोटली लेकर स्वर्ग मत जाओ। इस धरा पर ही पुण्यों की फसल उगाओ! अर्थात इस भारत वसुंधरा पर ही पुण्यों की खेती करो अर्थात पुण्यों से पुण्यों की फसल उगाकर पुण्यों को हजारों गुना बढ़ाओ, ताकि समूची मानवता सुखी हो सके। जैसा कि शास्त्र प्रमाण हैं हमारे द्वारा औरों के हित में किया गया कार्य ही पुण्य है। परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। अर्थात परहित जैसा कार्य नहीं और दूसरों को कष्ट देने जैसा पाप नहीं। यहां धर्म से तात्पर्य पुण्य से ही है। यदि हम मानवीय संवेदनाओं से भरकर संसार पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि पुण्यवानों की जितनी आवश्यकता स्वर्ग में नहीं उतनी इस धरती पर है। इस धरती पर तरह-तरह की पीड़ाओं से रोती-बिलखती मानवता के आंसू पोंछने के लिए पुण्यवान आगे आएं। स्वयं पुण्य करें और औरों से करवाएं, ताकि इस भारत वसुंधरा पर पुण्यों के पेड़ लहलहाएं। जिन्हें देखकर स्वर्ग के देवता भी लजाएं। वास्तव में पुण्य स्वर्ग ले जाने के लिए नहीं हैं। यदि हम सब मानव इस धरती पर पुण्यों की खेती करने का संकल्प लें तो निश्चित है कि एक दिन ऐसा आएगा जब समूची धरा पुण्यवानों से भर जाएगी और फिर कहीं भी पाप का नामनिशान नहीं होगा।