कर्म अच्छा तो 'काल' से भी अभय कर्म बरा तो 'कंकाल' का भी भय!

 इस कर्म प्रधान विश्व में दो तरह के लोग निवास करते हैं- निर्भीक और भयभीत! इनमें निर्भीक पर सबको भरोसा है, जबकि भयभीत का भरोसा नहीं सिर्फ उपेक्षा और उपहास है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सबसे प्रथम निर्भीक बनने की जरूरत है, क्योंकि जो निर्भीक हैं वही नर से लेकर नारायण तक की सेवा कर सकते हैं। शास्त्रों में बताया गया है भगवत भक्ति के लिए अभय होना सबसे आवश्यक है। बिना अभयता के कोई न तो राम की भक्ति कर सकता और न ही राष्ट्र की। निर्भीक अथवा भयभीत होना मनुष्य के कर्म पर निर्भर है। श्रीराम चरित मानस में कहा गया है कर्म प्रधान बिस्व करि राखा। जो जसु करहि सो तसु फल चाखा।। अर्थात कर्म प्रधान इस विश्व में मनुष्य को उसके कर्म के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है। यानी कर्म अच्छा तो 'काल' से भी अभय । कर्म बुरा तो 'कंकाल' का भी भय! यहां वास्तविकता ये है कि भय अथवा अभय मनुष्य के अंदर की बात है जो कि उसके अपने कर्म का ही परिणाम है। कई बार ऐसा होता है जब मनुष्य अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण स्वयं निर्भय और प्रफुल्लित होता है और समाज में सम्मानित होता है। ऐसे लोगों के सामने कोई काल भी आ जाए तो इन्हें भय नहीं लगता। इसके विपरीत अकर्म से उत्पन्न भय के कारण मनुष्य स्वयं से भी डरता है और संसार से भी उसे डर लगता है। यहां तक कि मरे हुए कंकाल यानी कमजोर से भी डरता है। तात्पर्य यही कि मनुष्य के भय अथवा अभय का मूल कारण उसका अपना कर्म है। बात सीधी सी है- बबूल का पेड़ लगाओगे तो कांटे हाथ लगेंगे और यदि आम का पेड़ लगाओगे तो सुंदर, सुगंधित और मीठे फल खाने का अवसर प्राप्त होगा। इसलिए भारतीय सनातन ने सदा से सबको शुभ कर्म की सीख दी है। विशेषकर ऐसे लोग जो समाज में श्रद्धा व सम्मान के पात्र हैं और 'संत' रूप में पूजे जाते हैं उन्हें अपने द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक कर्म का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि जो पहले समाज में सम्मानित व पूजित हो चुके हैं वो यदि अकर्म अथवा दुष्कर्म में पकड़े जाते हैं तब श्रद्धा, अश्रद्धा का रूप धर उपेक्षा और अपमान के अस्त्र उठा लेती है। तब भागने से भी कुछ नहीं होता और उस वक्त बचाने वाला भी कोई नहीं होता। इसलिए मनुष्य को सार्वजनिक रूप से अथवा एकांत में भी वही कर्म करना चाहिए जिससे अभयता प्राप्त हो और समाज का संरक्षण व सम्मान मिले।