सनातन संस्कृति में मकर संक्रांति एक महापर्व है। परिवर्तन का महापर्व, जिसमें सकल ब्रम्हाण्ड के प्रकाश पुंज सूर्य अपनी दिशा बदलते हैं। दक्षिणायण से उत्तरायण की ओर रुख करते हैं। इसी दिन से सूर्य की किरणें और भी चमकीली होने लगती हैं और तिलतिल तपन बढऩे लगती है। समूची प्रकृति में बदलाव की बयार बहती है, जिसके प्रभाव से प्राणीमात्र के हृदय में भी बदलाव अनुभव होता है। लोगों के मन, बुद्धि और चित में एक अनोखा उत्सव और आनंद अनुभव होता है।
मानव मात्र से उत्साह और उमंग को पतंग जैसे कहीं अनंत आसमान में उडऩे लगती है। तब साधु पुरुषों, सज्जनों व श्रद्धालुओं का मन सत्संग करने को करता है। जैसे कि पौराणिक काल में ऋषि भारद्वाज का हुआ। माघ मकर गति रवी जब होई। तीरथ पतिहि अख सब कोई।। अर्थात सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब ऋषि माथन तीर्थराज प्रयाग में संसार भर के श्रेष्ठ साधु समाज के साथ सत्संग करते हैं। तीर्थराज में सत्संग की पावन परम्परा भारद्वाजजी की ही देन है जो आज तक विद्यमान है। वास्तव में मकर संक्रांति सूर्य उपासना का पर्व है जिसके परिणाम स्वस्थ शुद्ध हुई हमारी बुद्धि हमें सत्संग और सनातन के लिए प्रेरित करती है। मकर संक्रांति, सूर्य पर्व परिवर्तन का प्रतिमान। लूटो पुण्य-करो स्नान, ध्यान और दान। अर्थात परिवर्तन की प्रतीक मकर संक्रांति पर कहीं गंगा, नर्मदा आदि पवित्र नदियों में अथवा अपने घर पर ही तिल युक्त जल से स्नान कर सूर्य को अघ्र्य देना अति लाभदायक है। समतन शास्त्रों के अनुसार स्नान और अघ्र्य से हमारा तन पवित्र होता है। रोग मुक्त होता है। स्नान उपरांत किये गये ध्यान से हमारा मन पवित्र होता है। जबकि मकर संक्रांति पर स्नान- ध्यान उपरांत किये गये दान से हमारा धन पवित्र होता है। अब चाहे भगवान की भक्ति हो या राष्ट्र की भक्ति व्यक्ति का तन मन धन पवित्र होना जरूरी है, जिसे पवित्र करने मकर संक्रांति एक बड़ा अवसर है। जिसका लाभ हमें अवश्य लेना चाहिए, ताकि हमारा तन संदर और स्वस्थ बने, जिससे हम ध्यान-दान कर और परमात्मा को प्रसन्न कर सकें।