नई दिल्ली. कांग्रेस के तमाम सूत्र खामोश है, कोई कुछ नहीं बोल रहा। कई वरिष्ठ नेता ऑन रिकार्ड तो दूर, ऑफ़ रिकार्ड बात करने से भी परहेज कर रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि सूत्रधारों से भरी पार्टी के तमाम सूत्रों ने फ़िलहाल ख़ामोशी अख्तियार कर ली है? राहुल गांधी ने असम और तमिलनाडु के पार्टी नेताओं के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मीटिंग की। हालांकि ये किसी चुनाव से पहले संगठन की आम आंतरिक बैठक थी। पर अमूमन ऐसी आंतरिक बैठकों में क्या कुछ हुआ, किसने किसको क्या बोला. किसका रुख कैसा रहा, किसने किसको टोका, किसने किसे क्या समझाने की कोशिश की, कौन किसके साथ खड़ा नज़र आया, किसने किसको चुप रहने का इशारा किया, किसने किसकी बात बीच में काट दी, किसने किसका बचाव किया, किसने किसको - निशाने पर लिया। ऐसी कई बातें सूत्रों के हवाले से छनकर आने की कांग्रेस की परंपरा रही है। कई का खंडन आता था, कई का नहीं। और कई को खंडन के लायक भी नहीं माना जाता था। तो क्या ये परंपरा अब खत्म होने जा रही है? या इस पर तात्कालिक विराम भर लगा है? जो भी है, पार्टी के एक नेता आपसी बातचीत में इस बात की तस्दीक करते हैं कि बदली हुई परिस्थिति में सभी एक-दूसरे को नए सिरे से आंकने की कोशिश में हैं। दरअसल अहमद पटेल की कोरोना वायरस की चपेट में आकर हुई असामयिक मृत्यु ने पार्टी नेताओं को कई स्तर पर झकझोर दिया है। भावनात्मक स्तर पर भी और राजनीतिक स्तर पर भी। पटेल के जाने के बाद पार्टी में एक शून्य पैदा हुआ है। यही शून्य पार्टी के भीतर एक तूफ़ान ला सकता है। खामोशी उसकी पूर्व पीठिका हो सकती है। अहमद पटेल की दुखद मौत के बाद पार्टी फ़िलहाल मातम में है। इस बीच ऐसी कोई बड़ी राजनीतिक बयानबाजी नहीं हुई है जिससे पार्टी के भीतर की धार का पता चले।
आनंद शर्मा ने की मोदी की तारीफ
वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा का एक ट्वीट ज़रूर आया जिसमें वे प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ करते नजऱ आए। इससे ये कय़ास लगाया जाने लगा कि वे बीजेपी की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं, लेकिन फिर आनन्द शर्मा ने स्वयं उस ट्वीट को डिलीट कर दूसरा ट्वीट किया। लिखा कि पहले ट्वीट में वाय विन्यास संबंधी कुछ ग़लती हो गई थी सो अर्थ का अनर्थ हो गया। आनन्द शर्मा, ग़ुलाब नबी आज़ाद के साथ उन 23 चर्चित नामों में एक हैं जिन्होंने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी। पार्टी नेतृत्व को लेकर कुछ सवाल पूछे थे, सलाह दी थी और आगे की राह जाननी चाही थी। उसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन नेताओं को कुछ जवाब भी मिला था। अहमद पटेल ने भी अपने शब्दों में समझाया था। वे न सिर्फ़ गांधी परिवार और उसके नेतृत्व की ढ़ाल बनकर सामने आए, बल्कि अंदरूनी असंतोष पर मिट्टी डालकर आगे की राह भी दिखाने की कोशिश की थी। अब अहमद पटेल नहीं हैं। वे सोनिया गांधी के ऐसे सिपहसालार थे जो पार्टी के असंतुष्टों की सुनते भी थे, उनकी बात आलाकमान के सामने रखते भी थे।
सबको एकसूत्र में पिरोनो वाले शख्स का साया नहीं
दरअसल, अहमद पटेल को असामयिक मृत्यु ने पार्ट के सामने दो स्थिति पैदा की हैं। या तो तमाम असंतुष्ट अब गांधी परिवार की सर्वसत्ता को स्वीकारते या फिर अपनी-अपनी सह लें। क्योंकि सबों को एक सूत्र में पिरोने वाले शख्स का साया उठ गया है। अगर किसी को राहुल गांधी के नेतृत्व से शिकायत है तो क्या अब वे सीधे सोनिया गांधी के पास जाएंगे? निश्चित रूप से नहीं। तो समय की जरूरत है खामोशी। असंतोष के पुराने रुख और बयानों को नया धार देना अभी मुनासिब नहीं। जिन बातों को पार्टी नेतृत्व द्वारा पहले दिल पर नहीं लिया गया था, वह ज़ख्म कुरद सकता है। उस ज़ख्म को जड़ से मिटाने का फैसला लिया जा सकता है। इसलिए पहले से चढ़ाकर रखी गई प्रत्यंचा को अभो ढीला छोड़ना ही बुद्धिमानी है।