किसान आंदोलन की गूंज अब भारत के खेतों तक पहुंची

- नरेंद्र तिवारी 'एडवोकेट'
    

    बेशक दिल्ली में जारी किसान आंदोलन अब राष्ट्रव्यापी हो गया है। केंद्र सरकार इन कानूनों को वापिस लेती है या आंशिक संशोधन करती है, यह आगामी दिनों में साफ हो पाएगा। आंदोलन कब तक जारी रहेगा यह भी किसान संगठनों की आगामी रणनीति के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा। बहरहाल किसानों के दिल्ली जाने वाले रास्तो को खोद देने वाली सरकार, किसानों पर वाटर केनन, अस्रुगैस, लाठियां चलाने वाली सरकार, बयानों और तर्को के माध्यम से पूरे आंदोलन पर दोषारोपण करने वाली सरकार, आंदोलन को विपक्षी राजनीति से प्रेरित बताने वाली सरकार अब किसानों की मांगों को सुनने के लिए बाध्य हुई है। बातचीत के अनेको दौर अब तक बेनतीजा रहे हैं। भारत बंद के बाद देश के गृह मंत्री अमित शाह ने मंगलवार को किसान संगठनों के नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है। किसान आंदोलन को लेकर सरकार के मंत्रियों, पक्ष-विपक्ष नेताओं एवं सोशल मीडिया पर चल रही बहसों पर देश का किसान कान लगाए हुए है। वे किसान, जो दिल्ली पहुंचकर आंदोलन में तो शामिल नहीं हो सके वे यह सब देखकर, सुनकर अपनी धारणाएं निर्मित कर रहे हैं। वह यह भी जान रहे हैं कि सरकार का किसानों के प्रति क्या रवैय्या है? और विपक्षी दल क्या चाहते हैं? दरअसल अब यह आंदोलन भारत के खेतों में कार्यरत किसानों की चर्चा का विषय बन चुका है।

   लोकतंत्र में अपनी बात रखने का अधिकार संविधान प्रदत्त है, इसी अधिकार के तहत 26 नवम्बर को दिल्ली पहुंचने वाले पंजाब और हरियाणा के किसानों को जो हाल ही में पारित कृर्षि कानूनों का विरोध करने हेतु दिल्ली जाना चाह रहे थे, उन्हें रोकने के लिए ऐसे प्रयास किये गए, जो आपत्तिजनक दिखाई दिए। इन प्रयासों को लोकतांत्रिक तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता है। दिल्ली की ओर कूच कर रहे किसानों के काफिलों पर लाठियां चलाई गयीं वाटर केनन का उपयोग किया गया, सड़कों को खोद डाला गया, यहां तक तो ठीक था, यह माना जा सकता है कोरोना महामारी के चलते किसानों की इस भीड़ को दिल्ली नहीं पहुंचने की सरकारी मंशा हो सकती है, किंतु सरकार में शामिल मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और सत्ताधारी दल के नेताओं के बयान तो किसानों के आंदोलन की ऐसी मुखालफत करते हुए सुनाई दिए जैसे किसानों का अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली पहुंचना एक जुर्म है, अपराध है।

    हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर किसान आंदोलन के सबसे बड़े विरोधी के रूप में सामने आए, जिन्हें किसान आंदोलन में अराजकतत्व दिखाई दिए उनकी सरकार ने किसानों को रोकने के हरसम्भव प्रयास किए दिल्ली पहुंचने वाली सड़कों पर जेसीबी से गड्ढे तक करा दिए गए, किन्तु दृढ़ किसानों के रास्तों पर अटकाए सभी रोडे नाकाफी सिद्ध हुए हैं।

   किसान आंदोलन के दौरान केंद्र द्वारा पारित कृषी कानूनों को किसानों के हित में बताते हुए उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा वन नेशन वन मार्केट की अवधारणा को नए कानून में शामिल किया है। उन्होंने कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों पर किसानों को भड़काने का आरोप लगाया उन्होंने कहा यह राजनैतिक दल किसानों के कंधों पर बंदूक रख अपना उल्लू सीधा करना चाह रहे हैं।

    यहां यह सवाल भी लाजमी है, क्या विपक्षी पार्टियों को देश के किसानों की जायज मांगो के समर्थन में आना क्या अप्रजातांत्रिक है? क्या देश की विपक्षी पार्टियां किसानों के हित में बात नहीं कर सकती है? इस तरह अजीबोगरीब तर्क दिए जा रहे हैं जिस पर देश के किसान एवं आमजन विचार कर रहे हैं।

 किसान संगठन खासतौर से इस बात पर जोर देते हैं कि नई व्यवस्था में मंडी और एमएसपी प्रणाली खत्म कर दी जाएगी और सरकार गेहूं एवं चावल लेना बंद कर देगी। उन्हें खतरा इस बात से दिखाई दे रहा है कि उनका माल प्रायवेट और बड़े कार्पोरेट घरानों को बेचना पड़ेगा, जो उनका शोषण कर सकते हैं।

   तमाम दावों के बावजूद भी सरकार किसानों की आशंकाओं को दूर करने की बजाय किसानों के आंदोलन को ही सन्देह की दृष्टि से देख रही है, जबकि सरकार को किसानों की आशंकाओं को दूर करने के पुख्ता प्रयास करने चाहिए।

    8 दिसम्बर को किसानों के भारत बंद का असर मिला जुला रहा है। किन्तु भारत बंद और किसान आंदोलन की गूंज दिल्ली के आंदोलन से निकल कर भारत के खेतों तक पहुंचने लगी है। किसान कानूनों के पक्ष विपक्ष में चर्चा कर रहे हैं और अपनी धारणाओं का निर्माण भी कर रहे हैं। 

    भारत कृषि प्रधान देश है। सरकार द्वारा पारित कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन मे जन्म ले रही आशंकाओ को दूर करने की बजाय किसानों के आंदोलन को अराजक बताना उचित नहीं कहा जा सकता है।

   देश मे एक बहुत बड़े वर्ग की यह धारणा भी बन चुकी है कि वर्तमान सरकार बड़े कारपोरेट घरानों के हित में निर्णय ले रही है। इन कानूनों के मामले में भी किसान संगठन यह बात दोहरा रहे हैं। आशा की जानी चाहिए सरकार इन धारणाओं को निर्मूल साबित करते हुए किसान संगठनों के साथ बातचीत कर किसानों को समझा पाने में सफल होगी और बीच का रास्ता निकाल पाएगी।

 यह सही है कि वर्तमान केंद्र सरकार पूर्ण बहुमत से चुनी गई प्रजातांत्रिक सरकार है, जिसे विरोधी स्वर सुनने की आदत नहीं रही, किन्तु यह भी सही है कि किसानों के एक बड़े वर्ग में इन बिलों को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जन्म ले रही हैं। सरकार को चाहिए कि देश के कृषक वर्ग की समस्याओं का लोकतांत्रिक निराकरण करें।