जब विष्णुजी पत्थर बनकर तुलसी के हो गए सदा-सर्वदा के लिए

भगवान विष्णु को मिला शाप तो बन गए शालिगराम


प्रबोधिनी एकादशी यानी कि आज के दिन शालिगराम और तुलसी के विवाह की है परंपरा


कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी यानी कि आज के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी के विवाह की परंपरा है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कौन हैं शालिग्राम? या क्यों हुआ था तुलसी का शालिग्राम से विवाह । या फिर क्यों सदियों बाद आज भी यह परंपरा चली आ रही है?



कथा मिलती है कि पुरातन काल में एक राक्षस था जिसका नाम जलंधर था। वह बहुत ही शक्तिशाली था। उसे हरा पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। हालांकि उसकी शक्ति का कारण वह स्वयं नहीं था बल्कि उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता होना था। उसके ही प्रभाव से जलंधर को कोई भी परास्त नहीं कर सकता था। धीरे- धीरे उसके उपद्रवों से देवतागण परेशान होने लगे तो वह अपनी परेशानी लेकर विष्णु जी के पास पहुंचे। तब इसका समाधान निकाला गया कि यदि वंदा के सतीत्व को नष्ट कर दिया जाए तो जलंधर की मत्य हो जाएगी। तब श्री विष्णु ने जलंधर का रूप बनाकर छल से वृंदा का स्पर्श किया तो उस समय जलंधर जो कि देवताओं से युद्ध कर रहा था वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसका भान होते ही वृंदा ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया। कथा के अनुसार जब वृंदा का सतीत्व भंग हुआ था तो उसी समय जलंधर का सर उसके आंगन में आ गिरा पड़ा। अपने पति का सिर देखते ही वृंदा अवाक रह गई। उसी क्षण उन्होंने यह जानने का प्रयास किया कि जो उनके साथ था वह कौन था? सामने देखा तो साक्षात् श्री हरि विष्णु खड़े थे। इसके बाद वृंदा ने विष्णुजी को शाप दिया। उन्होंने कहा कि जिस तरह आपने छल किया और मुझे पति वियोग का कष्ट दिया। ठीक उसी प्रकार आपकी भी पत्नी का छलपूवहार्क हरण होगा। आपको भी पत्नी विरह का दुःख सहन करना पड़ेगा। इसके बाद वृंदा ने कहा कि आपने मेरा सतीत्व भंग किया है इसलिए आप पत्थर के हो जाएंगे। वहीं पत्थर शालिग्राम कहलाया। कहा जाता है कि वृंदा के इसी श्राप के चलते श्री विष्णु ने अयोध्या में दशरथ पुत्र श्री राम के रूप में सहना पड़ा। कथा मिलती है कि जिस स्थान पर वृंदा सती हुई। उसी जगह पर तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ। चूंकि उसी स्थान पर बंदा सती हुई थी तो इसलिए तुलसी का एक नाम वृंदा भी हआ। कहते हैं कि जब वृंदा ने श्री विष्णु को शाप दिया तो उसी समय उन्होंने भी वृंदा से कहा कि वह उनके सतीत्व का आदर करते हैं। लेकिन वह तुलसी के रूप में सदा-सर्वदा उनके साथ रहेंगी। इसके साथ ही भगवान विष्णु ने कहा कि जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी। इसके बाद से ही इस शुभ तिथि पर शालिग्राम और तुलसी के विवाह की परपरा शरू हई। यही नहीं श्री हरि की पूजा में भी तुलसी को विशेष स्थान प्राप्त है। बिना तुलसी दल के विष्ण जी की पूजा भी पूर्ण नहीं होती।


सजेगा गनों का मंडप, ऋतु फलों का लगेगा भोग


देवउठनी एकादशी पर घरों और मंदिरों में गन्नों से मंडप सजाकर उसके नीचे भगवान विष्णु की प्रतिमा विराजमान कर मंत्रों से भगवान विष्णु को जगाएंगे और पूजा-अर्चना करेंगे। पूजा में भाजी सहित सिंघाड़ा, आंवला, बेर, मूली, सीताफल, अमरूद और अन्य ऋतु फल चढाए जाएंगे। 


तुलसी-शालिगराम विवाह की परंपरा


इस पर्व पर वैष्णव मंदिरों में तुलसी-शालिग्राम विवाह किया जाता है। धर्मग्रंथों के जानकारों का कहना है कि इस परंपरा से सुख और समृद्धि बढ़ती है। देव प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह से अक्षय पुण्य मिलता है और हर तरह के पाप खत्म हो जाते हैं। 


कन्यादान का पुण्य


जिन घरों में कन्या नहीं है और वे कन्यादान का पुण्य पाना चाहते हैं तो वे तुलसी विवाह करके प्राप्त कर सकते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण का कहना है कि सुबह तुलसी दर्शन करने से अक्षय पुण्य फल प्राप्त होता है। 


तुलसी विवाह की तैयारी


तुलसी विवाह के लिए सबसे पहले आप तुलसी के गमले को गेरू आदि से सजा लें फिर उसके चरो तरफ गन्ने का मंडप बना लें। तुलसी के ऊपर सुहाग का प्रतीक लाल, हरा व पीले रंग के वस्त्र ओढ़ाएं। इससे तुलसी के पौधे पर शीत ऋतु का असर कम हो जाता है और यह हरा-भरा बना रहता है। अगर आप चाहें तो दुल्हन की तरह साड़ी भी पहनाकर तैयार कर सकते हैं और चूडिय़ां और अन्य गहनों को तुलसी को पहना दें। तुलसी विवाह में पूर्ण नारियल दक्षिणा के रूप में अर्पित कर दें और सिंदूर लगा दें। इसके बाद भगवान विष्णु के स्वरूप शालिग्राम को सिंहासन पर बैठा दें। फिर दोनों को हल्दी का टीका लगा दें, जैसे आप शादी के दौरान वर-वधु के हाथ पर हल्दी लगाते हैं। फिर तुलसी के पौधे के चारों ओर सात फेले लगवा दें और फिर अंत में दोनों की आरती कराकर विवाह संपन्न करवाएं। फिर शादियों में गाए जाने वाले सोहर गीत गाएं।