भगवान बुद्ध के सबसे अधिक समीपी शिष्य थे आनन्द

बुद्ध ने पहले ही बता दिया था कि मेरा जीवन थोड़े ही समय में परिनिर्वाण को प्राप्त होगा


बुद्ध के परिनिर्वाण होने से पहले आनन्द उनकी बगल में नहीं थे, भावुक आनन्द में इतना धैर्य कहां कि आनन्द विहार के भीतर जाकर खूटी पकड़ कर फूट-फूट कर रोएं


   


     आनन्द चूँकि भगवान बुद्ध के सबसे अधिक समीपी शिष्य थे, इसलिए उनके साथ-साथ उनको भी बहुत कुछ सुविधाएं मिल सकती थी। परन्तु आनन्द ने पहले ही भगवान से यह शर्त ले ली थी कि वे उनके साथ कभी निमन्त्रण आदि में नहीं जाएंगे। इतना ही नहीं, आनन्द का जीवन छोटी-सेछोटी बातों में भी बड़ा जागरूक था। कौशलदेश का राजा प्रसेनजित भगवान बुद्ध का बड़ा भक्त था। आनन्दको भी वह बहुत मानता था। जब कभी आनन्द उससे मिलते तो यही कहता, 'भन्ते! आयुष्मान् आनन्द इस कालीन पर बैठे।' परन्तु आनन्द तो 'नहीं महाराज! आप बैठो। मैं अपने आसन पर बैठा हूँ'- कहकर भिक्षु-नियम के अनुसार ही आसन पर बैठते।


       भगवान बुद्ध ने प्रकट कर दिया कि थोड़े ही समय में तथागत का परिनिर्वाण होगा। 'मेरा आयु परिपक्क हो गया, मेरा जीवन थोड़ा है। तुम्हें छोड़ कर जाऊंगा, मैंने अपने करने योग्य काम तो कर लिया।' वैशाली का अन्तिम बार दर्शन कर तथागत कुसीनारा की ओर चल दिए। आनन्द को यह पसन्द नहीं आया कि भगवान कुसौनारा जैसे अज्ञात, अप्रसिद्ध स्थान में परिनिर्वाण प्राप्त करें। बोले, 'भन्ते। आप इस छोटे से जंगली और झाड़- झंखाड़ वाले नगले में कृपया परिनिर्वाण प्राप्त न करें। आपके परिनिर्वाण प्राप्त करने योग्य और भी बड़े-बड़े शहर हैं - चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी और वाराणसी। वहां आपके अनेक महाधनी क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य शिष्य हैं। वे तथागत के भक्त हैं और तथागत के शरीर की पूजा करेंगे। आनन्द ने यह कर कर अपने भोले स्वभाव और भगवान के प्रति अनन्य प्रेम को तो दिखा दिया, परन्तु तथागत को तो वही करना था जो उन्होंने सोच रखा था। भगवान् का परिनिर्वाण होने को है, परन्तु आनन्द उनकी बगल में नहीं हैं। भावुक आनन्द में इतना धैर्य कहां? आनन्द विहार के भीतर जाकर खूटी पकड़ कर फूट-फूट कर रो रहे हैं, हाय! जो मेरे अनुकम्पक शास्ता हैं, उनका परिनिर्वाण हो रहा है और मैं आज तक NEER का न - शैक्ष्य (अ-मुक्त) ही बना हुआ हूँ। भगवान् ने भिक्षुओं को आमन्त्रित किया, "भिक्षुओ! आनन्द कहां हैं? रोते हुए आनन्द को देखकर भगवान् ने कहा, 'आनन्द! रोओ मत। शोक मत करो। मैंने तो पहले ही कह दिया है - सभी प्रियों से वियोग होना है। हा! वह नाश न हो! यह सम्भव नहीं। आनन्द! तूने चिरकाल तक मैत्रीपूर्ण कायिक, वाचिक और मानसिक कर्म से तथागत की सेवा की है। तूने बहुत पुण्य कमाया है। तू निर्वाण- साधना में लग, शीघ्र ही मुक्त होगा।' यह आर्शीवाद देकर प्रशंसा की है, "भिक्षुओ! यदि भगवान् ने आनन्द के गुणों की भिक्षु परिषद् आनन्द का दर्शन करने जाती है तो दर्शन से संतुष्ट हो जाती है। यदि आनन्द धर्म पर भाषण करता है तो भाषण से भी सन्तुष्ट हो जाती है। भिक्षुओ! भिक्षु-परिषद् अतृप्त हो रहती है जबकि आनन्द चुप हो जाता है।' आनन्द और अन्य भिक्षुओं की आवश्यक अन्तिम उपदेश देकर शास्ता ने निर्वाण प्राप्त किया, लोकनेत्र अन्तर्धान हो गए।