स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धर्म सधार के लिए की आर्य समाज की स्थापना


हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि पर आर्य समाज के संस्थापक और आधुनिक भारत के महान चिन्तक और समाज-सुधारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की जयंती मनाई जाती है। भारत में जितने भी वैदिक संस्थान और धार्मिक प्रतिष्ठान है इस तिथि पर बड़े ही धूम-धाम और उत्साह से महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की जयंती का उत्सव मनाया जाता है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था। दरअसल मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण इनके पिता ने इनका नाम मूलशंकर तिवारी रखा था। स्वामी दयानंद बचपन से ही बहुत मेधावी और होनहार महर्षि स्वामी दयानन्द बालक थे। केवल 2 साल की आयु में ही गायत्री मंत्र का सरस्वती जयंती पाठ स्पष्ट उच्चारण के साथ करने लगे थे। इनका परिवार बहुत ही धार्मिक परिवार था। इनके माता पिता भगवान शंकर के अनन्य भक्त थे। 14 वर्ष की आय में आते-आते इन्होंने धर्मशास्त्रों सहित संपर्ण संस्कत व्याकरण, सामवेद व यजर्वेद का अध्ययन कर लिया था। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे-जैसे बड़े होने लगे उन्होंने समाज की हर एक बात और परंपरा को तार्किक नजरिए की कसौटी पर कसते चले गए। धीरे-धीरे समय के साथ धार्मिक कर्मकांडों से इनका विश्वास उठने लगा। तब इन्होने मथुरा में स्वामी विरजानंद से शिक्षा लेने के बाद देश में फैले तरह-तरह के पाखण्डों का खण्डन करने के लिये निकल पड़े। स्वामी विरजानंद ने इन्हें सरस्वती की उपाधि दी। गुरू की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद देश भ्रमण पर निकल गए। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में धर्म सुधार के लिए आर्य समाज की स्थापना की और वेदों का प्रचार-प्रसार और इसके महत्व को बताया। आप ने कई सामाजिक व धार्मिक करीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। इन्होंने जातिवाद और बालविवाह के विरूद्ध जमकर अपनी आवाज उठाई। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती विधवा-विवाह के समर्थक थे। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आजादी के प्रथम संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुस्तकें भी लिखी।