इकरार चौधरी
इंदौर में चाय के पुराने ठिए अब पुराने हो गए। हालांकि पुराने होने से इनकी क्वालिटी या ग्राहकी में कोई फर्क नहीं पड़ा। बस नए ठियों ने अपनी नई पहचान और नए पीने वाले पैदा कर लिए। पुराने ठियों की अगर बात की जाए तो मल्हारगंज की टिमटिम चाय, गुलाबी चाय बरसों से अपने पीने वालों को अपनी तरफ बुलाती रही हैं और सुबह से रात तक पीने वालों का तांता एकसा लगा रहता है। यहां से थोड़ा आगे चलें तो बंबई बाजार की ईरानी चाय जो कभी आगरा होटल का ताज हुआ करती थी। गुलशन होटल के गुलशन को महका रही है। गुलशन होटल में रोजाना चार से पांच हजार कट का कट जाना मामूली बात है। फिर सराफा की केसरिया चाय जिसे धन्नासेठों की चाय माना जाता था, के जलवे भी आज तक कायम हैं। २५ रुपए कट केसरिया चाय के बहुत ज्यादा मालूम पड़ते थे, मगर नए खुल आए कैफे पर इन दिनों डेढ़ सौ से दो सौ रुपए तक की चाय आसानी से युवा खरीद कर पी रहे हैं। यहां पर अलग-अलग फ्लेवर की चाय चलन में है। ग्रीन टी, लेमन टी, मोरक्कन टी और भी जाने कितनी तरह की चाय इन कैफेस पर पी जाती है। इन पुरानी होटलों और नए कैफे के बीच छोटी-छोटी गुमटियां भी हैं, जो हर नुक्कड़, चौराहों और मल्टियों के नीचे मिल जाएंगी, कि चाय की दुकान लगाना आसान और किफायती धंधा माना जाता है।
अंग्रेज हमसे बहुत कुछ लेकर गए तो कुछ देकर भी गए। अंगे्रज जो देकर गए उनमें से एक चाय भी है। अगर घर आए मेहमान से चाय न पूछी जाए, तो यह मेहमान नवाज़ी के खिलाफ भी समझा जाता है। चाय से हमें कितनी चाहत है कि घर से लेकर बाजार तक ऑफिस से लेकर चौपाल तक जो एक चीज सभी जगह नजर आती है, वह है चाय। चाय की गरम-गरम चुश्कियों के साथ सामने वाले की बात आसानी से दिल-ओ-ज़हन में उतर जाती है। मगर पुरानी हो चुकी इस परंपरा को युवाओं तक पहुंचाने में आज खुल चुके कैफेज़ ने आम किया। श्रीनगर की कश रेस्टोरेंट से बिकने वाली मशीन की पांच रुपए वाली चाय ने इस चाय की दुनिया में ऐसी क्रांति मचाई कि आज इंदौर में ज्यादा नहीं तो कम से कम पांच हजार मशीन वाली चाय की होटलें खड़ी कर दीं। सिर्फ पांच रुपए में छोटे से डिस्पोज़ल में बिकने वाली दुकान पर सौ-दो सौ पीने वाले ऐटे-टाइम खड़े रहते हैं। फिर छप्पन दुकान पर चाय बार कैफे ने पीने वालों के साथ पीने वालियों को भी जगह मुहैय्या कराई तो नई रीति शुरू हुई। यहां से बात आगे बढ़ी तो साकेत में खुले चाय-काफी रेस्टोरेंट ने एक नई रवायत इस पेशे में जोड़ी कि हर सप्ताह कैफे पर एक प्रोग्राम रखा जाने लगा, जिसमें कभी शायरी, कभी स्टैंडअप कॉमेडी, कभी सेमिनार तो कभी गीत-$गज़ल की महफिलें। इन कैफेस की श्रृंखलाएं भी बनने लगीं, जैसे -चंद्रलोक चौराहे पर खुली टी-लॉजी इंदौर में चार-पांच ब्रांचें हैं, तो चाय-कॉफी की भी सही फे्रंचाइजी शहर में खुल चुकी हैं, जिससे इसके मालिक नाम और दाम बखुबी कमा रहे हैं।