शिव द्वारा खाने का कुछ अंश धरती पर गिरने से हुआ देवी मातंगी का जन्म

महाविद्याओं में नौवीं देवी मातंगी, उत्कृष्ट तंत्र ज्ञान से सम्पन्न, कला और संगीत पर महारत प्रदान करने वाली देवी हैं। देवी मातंगी दस महाविद्याओं में नवें स्थान पर अवस्थित हैं। तंत्र शास्त्रों के अनुसार देवी के प्रादुर्भाव वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। देवी मातंगी वैदिक सरस्वती का तांत्रिक रूप हैं और श्री कुल के अंतर्गत पूजित हैं। यह सरस्वती ही हैं और वाणी, संगीत, ज्ञान, विज्ञान, सम्मोहन, वशीकरण, मोहन की अधिष्ठात्री हैं। त्रिपुरा, काली और मातंगी का स्वरुप लगभग एक सा है। यद्यपि अन्य महाविद्याओं से भी वशीकरण, मोहन, आकर्षण के कर्म होते हैं और संभव हैं किन्तु इस क्षेत्र का आधिपत्य मातंगी (सरस्वती) को प्राप्त हैं।
देवी, केवल मात्र वचन द्वारा त्रिभुवन में समस्त प्राणियों तथा अपने घोर शत्रु को भी वश करने में समर्थ हैं, जिसे सम्मोहन क्रिया कहा जाता हैं, देवी सम्मोहन विद्या एवं वाणी की अधिष्ठात्री हैं। यह जितनी समग्रता ,पूर्णता से इस कार्य को कर सकती हैं कोई अन्य नहीं क्योकि सभी अन्य की अवधारणा अन्य विशिष्ट गुणों के साथ हुई है। उन्हें वशीकरण, मोहन के कर्म हेतु अपने मूल गुण के साथ अलग कार्य करना होगा जबकि मातंगी वशीकरण, मोहन की देवी ही हैं अत: यह आसानी से यह कार्य कर देती हैं। देवी उच्छिष्ट चांडालिनी या महा-पिशाचिनी से भी देवी विख्यात हैं तथा देवी का सम्बन्ध नाना प्रकार के तंत्र क्रियाओं, विद्याओं से हैं। इंद्रजाल विद्या या जादुई शक्ति में देवी पारंगत हैं साथ ही वाक् सिद्धि, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में निपुण हैं, नाना सिद्ध विद्याओं से सम्बंधित हैं; देवी तंत्र विद्या में पारंगत हैं। देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षी, जंगल, वन, शिकार इत्यादि से हैं, जंगल में वास करने वाले आदिवासी-जनजातियों सेदेवी मातंगी अत्यधिक पूजिता हैं। निम्न तथा जन जाती द्वारा प्रयोग की जाने वाली नाना प्रकार की परा-अपरा विद्या देवी द्वारा ही उन्हें प्रदत हैं। देवी का घनिष्ठ संबंध उच्छिष्ट भोजन पदार्थों से हैं। परिणामस्वरूप देवी, उच्छिष्ट चांडालिनी के नाम से विख्यात हैं। देवी की आराधना हेतु उपवास की आवश्यकता नहीं होती हैं। देवी की आराधना हेतु उच्छिष्ट सामाग्रीयों की आवश्यकता होती हैं क्योंकि देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी। देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई, माना जाता हैं तभी से वे सुखी, सम्पन्न, श्री युक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। ऐसा माना जाता हैं कि देवी की ही कृपा से वैवाहिक जीवन सुखमय होता हैं, देवी ग्रहस्त के समस्त कष्टों का निवारण करती हैं। देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के प्रेम से हुई हैं। देवी मातंगी का सम्बन्ध मृत शरीर या शव तथा श्मशान भूमि से हैं। देवी अपने दाहिने हाथ पर महा-शंख (मनुष्य खोपड़ी) या खोपड़ी से निर्मित खप्पर, धारण करती हैं। पारलौकिक या इंद्रजाल, मायाजाल से सम्बंधित रखने वाले सभी देवी-देवता श्मशान, शव, चिता, चिता-भस्म, हड्डी इत्यादि से सम्बंधित हैं, पारलौकिक शक्तियों का वास मुख्यत: इन्हीं स्थानों पर हैं। तंत्रो या तंत्र विद्या के अनुसार देवी तांत्रिक सरस्वतीनाम से जानी जाती हैं एवं श्री विद्या महा त्रिपुरसुंदरीके रथ की सारथी तथा मुख्य सलाहकार हैं। देवी मातंगी का शारीरिक वर्ण गहरे नीले रंग या श्याम वर्ण का है, अपने मस्तक पर देवी अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा देवी तीन नशीले नेत्रों से युक्त हैं। देवी अमूल्य रत्नों से युक्त रत्नमय सिंहासन पर बैठी हैं एवं नाना प्रकार के मुक्ता-भूषण से सुसज्जित हैं, जो उनकी शोभा बड़ा रहीं हैं। कहीं-कहीं देवी कमल के आसन तथा शव पर भी विराजमान हैं। देवी मातंगी गुंजा के बीजों की माला धारण करती हैं, लाल रंग के आभूषण देवी को प्रिय हैं तथा सामान्यत: लाल रंग के ही वस्त्र-आभूषण इत्यादि धारण करती हैं। देवी सोलह वर्ष की एक युवती जैसी स्वरूप धारण करती हैं जिनकी शारीरिक गठन पूर्ण तथा मनमोहक हैं।