रायसेन स्थित पहाड़ी पर बना प्राचीन शिव मंदिर भक्तों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। महाशिवरात्रि के दिन विशाल शिवलिंग की पूजन अर्चना होगी, तो गैरतगंज के भगवान नीलकंठेश्वर की भी आराधना के लिए हजारों श्रद्धालु पहुंचेंगे। ये प्रसिद्ध मंदिर केवल महाशिवरात्रि ही नहीं बल्कि हर दिन भगवान की पूजन अर्चना के लिए खुले रहते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि रायसेन जिले में एक ऐसा भी मंदिर है जो केवल साल में एक बार वो भी महाशिवरात्रि के दिन ही खुलता है। और केवल इसी दिन इस मंदिर में विराजे सोमेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की जाती है। यह कोई धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था है। रायसेन के प्राचीन दुर्ग परिसर में स्थित विशाल मंदिर में सोमेश्वर महादेव साल के 364 दिन ताले में कैद रहते हैं। केवल महाशिवरात्रि के दिन ही इस मंदिर के ताले खोले जाते हैं। सुबह 6.00 बजे से लेकर शाम को 6.00 बजे तक प्रशासनिक अधिकारियों और पुरातत्व विभाग के अधिकारियों की मौजूदगी में मंदिर के ताले केवल 12 घंटे के लिए खोले जाते हैं। जानकार बताते हैं कि आजादी के पहले से ही मंदिर मैं पूजन-पाठ बंद हो गया था, आजादी के बाद शिवलिंग को मंदिर के बाहर लावारिस हालत में पाया गया था। जिसे कुछ लोगों ने मंदिर में स्थापित किया था, लेकिन देश के आज़ाद होते ही भगवान शिव कैद हो गए। आजादी के बाद इस परिसर में मंदिर और मस्जिद का विवाद खड़ा हुआ और पुरातत्व विभाग ने मंदिर में ताले लगा दिए। तब से 1974 तक मंदिर में कोई प्रवेश नहीं कर पाता था। 1974 में रायसेन नगर के हिंदू समाज और संगठनों ने मंदिर के ताले खोलने के लिए एक बड़ा आंदोलन शुरु किया। तब तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी ने खुद किला पहाड़ी स्थित मंदिर पहुंचकर ताले खुलवाए और महाशिवरात्रि पर मंदिर परिसर में एक विशाल मेले का आयोजन किया। तब से साल में एक बार महाशिवरात्रि के दिन ही मंदिर के ताले खोलने की व्यवस्था लागू की गई जो आज भी जारी है। हर साल महाशिवरात्रि पर सोमेश्वर महादेव के मंदिर में पूजन अर्चना होती है। किला पहाड़ी पर विशाल मेला लगता है। जिसमें हजारों श्रद्धालु पहुंचकर भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं। नगर के समाजसेवी हिंदू संगठन पहाड़ी पर पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को फलाहार पानी आदि की व्यवस्था करते हैं। शाम होते ही एक साल के भगवान सोमेश्वर फिर ताले में बंद हो जाते हैं।
अष्टभुजा धाम मंदिर में होती है बिना सिर वालीं मूर्तियों की पूजा
उत्तरप्रदेश में एक ऐसा मंदिर है, जहां देवी-देवताओं की ज्यादातर मूर्तियों पर सिर ही नहीं हैं। वैसे तो लोग खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं, लेकिन यहां मूर्तियां 900 सालों से संरक्षित है और इनकी पूजा भी की जाती है। यह मंदिर उत्तरप्रदेश की राजधानी से 170 किमी दूर प्रतापगढ़ के गोंडे गांव में स्थित है। यह मंदिर लगभग 900 साल पुराना है। अष्टभुजा धाम मंदिर की मूर्तियों के सिर औरंगजेब ने अलग करवा दिए थे। शीर्ष खंडित ये मूर्तियां आज भी उसी स्थिति में इस मंदिर में संरक्षित हैं।
मस्जिद के आकार का बनवा दिया था मुख्य द्वार
मुगल शासक औरंगजेब ने 1699 ई. में हिन्दू मंदिरों को तोडऩे का आदेश दिया था। उस समय इसे बचाने के लिए यहां के पुजारी ने मंदिर का मुख्य द्वार मस्जिद के आकार में बनवा दिया था, जिससे भ्रम पैदा हो और यह मंदिर टूटने से बच जाए। मुगल सेना इसके सामने से लगभग पूरी निकल गई थी, लेकिन एक सेनापति की नजर मंदिर में टंगे घंटे पर पड गई। फिर सेनापति ने अपने सैनिकों को मंदिर के अंदर जाने के लिए कहा और यहां स्थापित सभी मूर्तियों के सिर अलग कर दिए।
रहस्यों से भरा है मंदिर
आज भी इस मंदिर की मूर्तियां वैसे ही हाल में देखने को मिलती हैं। मंदिर की दीवारों, नक्काशियों और विभिन्न प्रकार की आकृतियों को देखने के बाद इतिहासकार और पुरातत्वविद इसे 11वीं शताब्दी का बना हुआ मानते हैं। गजेटियर के मुताबिक, इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी क्षत्रिय घराने के राजा ने करवाया था। मंदिर के गेट पर बनीं आकृतियां मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर से काफी मिलती-जुलती हैं। इस मंदिर में आठ हाथों वाली अष्टभुजा देवी की मूर्ति है। गांव वाले बताते हैं कि पहले इस मंदिर में अष्टभुजा देवी की अष्टधातु की प्राचीन मूर्ति थी। 15 साल पहले वह चोरी हो गई। इसके बाद सामूहिक सहयोग से ग्रामीणों ने यहां अष्टभुजा देवी की पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाई। इस मंदिर के गेट पर एक विशेष भाषा में कुछ लिखा है। यह कौन-सी भाषा है, यह समझने में कई पुरातत्वविद और इतिहासकार फेल हो चुके हैं।