राजा हरिश्चंद्र को एकादशी का व्रत करने पर वापस मिला था अपना खोया हुआ राज-पाट

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादशी अजा या कामिका एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस दिन की एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा का विधान होता है। इस वर्ष अजा एकादशी 26 और 27 अगस्त को दो दिन मनाई जा रही है। इस दिन रात्रि जागरण तथा व्रत करने से व्यक्ति के सभी पाप दूर होते है। पद्मपुराण के अनुसार इस एकादशी के व्रत से धन-धान्य का लाभ मिलता है। ऐसी कथा है कि सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को अजा एकादशी का व्रत करने पर अपना खोया हुआ राज-पाट वापस मिला था।



दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल खाने से बचना चाहिए। इससे व्रत के शुभ फलों में कमी होती है। चने नहीं खाने चाहिए, करोदों का भोजन नहीं करना चाहिए, शाक आदि भोजन करने से भी व्रत के फलों में कमी होती है, इस दिन शहद का सेवन करने एकादशी व्रत के फल कम होते है। व्रत के दिन और दशमी तिथि के दिन पूर्ण ब्रह्माचार्य का पालन करना चाहिए।
व्रत का महत्व
समस्त उपवासों में अजा एकादशी के व्रत श्रेष्ठतम कहे गए हैं। एकादशी व्रत को रखने वाले व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है। अजा एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। यह व्रत प्राचीन समय से यथावत चला आ रहा है। इस व्रत का आधार पौराणिक, वैज्ञानिक और संतुलित जीवन है। इस उपवास के विषय में यह मान्यता है कि इस उपवास के फलस्वरुप मिलने वाले फल अश्वमेघ यज्ञ, कठिन तपस्या, तीर्थों में स्नान-दान आदि से मिलने वाले फलों से भी अधिक होते है। यह उपवास, मन निर्मल करता है, ह्रदय शुद्ध करता है तथा सदमार्ग की ओर प्रेरित करता है।
व्रत पूजन विधि
अजा एकादशी का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को एकाद्शी तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए। उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद, सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद तिल और मिट्टी के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से स्नान करना चाहिए। स्नान आदि कार्य करने के बाद, भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। भगवान श्री विष्णु का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए। धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है। कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है। और स्थापना करने के बाद कुम्भ की पूजा की जाती है। इसके पश्चात कुम्भ के ऊपर विष्णु जी की प्रतिमा स्थापित कि जाती है प्रतिमा के समक्ष व्रत का संकल्प लिया जाता है। संकल्प लेने के पश्चात् धूप, दीप और पुष्प से भगवान श्री विष्णु जी की जाती है।
जब देवताओं ने ली राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा
अपनी सत्य वाणी और पराक्रम के लिए प्रसिद्ध राजा हरिश्चंद्र एक सूर्यवंशी राजा थे। इनका जन्म सतयुग में हुआ था और वाणी की शुद्धि और वीरता के कारण पृथ्वी लोक पर हर ओर इनके गुणों का गान होता था। एक बार देवताओं ने राजा हरीश्चंद्र की परीक्षा लेने के उद्देश्य से उन्हें सपने में दिखाया कि उन्होंने अपने वचन की खातिर अपना संपूर्ण राज्य ऋषि विश्वामित्र को दान कर दिया है। फिर जब अगली सुबह राजा अपना संपूर्ण राज्य दान करने के बाद जाने लगे, तब विश्वामित्र ने उनसे पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं दान में मांगी। इस पर राजा ने कहा कि आप चाहे कितनी भी स्वर्ण मुद्राएं ले लीजिए। इस पर हंसते हुए विश्वामित्र ने बोला की राज्य के साथ आप अपना संपूर्ण कोष भी दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु दोबारा दान नहीं की जा सकती। तब राजा हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, पुत्र और स्वयं को दास के रूप में एक चांडाल को समर्पित कर दिया और विश्वामित्र को दक्षिणा चुकाई। लेकिन जीवन की किसी भी विपरीत परिस्थिति में इन्होंने धर्म का रास्ता नहीं छोड़ा। राजा हरिश्चंद्र भगवान विष्णु के भक्त थे। वह बहुत धार्मिक विचारों वाले और हरि भजन में लीन रहते थे। एक दिन उन्होंने एकादशी का व्रत किया हुआ था और श्मशान के द्वार पर पहरा दे रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि उनकी पत्नी, बेटे रोहिताश्व का मृत शरीर हाथों में उठाए रोती-बिलखती हुई श्मशान की तरफ चली आ रही है। इस पर राजा ने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए भी पत्नी से कर (पैसे) मांगा। क्योंकि हरिश्चंद्र उस वक्त चांडाल के सेवक थे और उन्हें अपने मालिक से आज्ञा प्राप्त थी कि जो भी अंतिम संस्कार कराने आएगा, उससे कुछ न कुछ शुल्क अवश्य लिया जाएगा। तब राजा ने अपनी पत्नी से भी पुत्र के अंतिम संस्कार के लिए शुल्क स्वरूप कुछ देने को कहा। लेकिन रानी के पास देने के लिए कुछ नहीं था। इस पर उन्होंने अपनी आधी साड़ी फाड़कर दे दी। तभी वहां देवता प्रकट हुए और उन्होंने राजा हरिश्चंद्र की सत्य के प्रति निष्ठा देखकर कहा कि राजन! आप परीक्षा में पास हुए। इतना कहते ही राजा का बेटा भी जीवित हो उठा और विश्वामित्र उन्हें उनका राज-पाट वापस सौंपने आ गए।