जय-विजय की भूख मिटाने के लिए माता छिन्नमस्ता ने काटा अपना सर


गुप्त नवरात्रि की पांचवी महाविद्या का नाम है- छिन्नमस्ता। तांत्रिक और भयंकारी स्वरूप के कारण इन शक्ति की पूजा गृहस्थ नहीं करते हैं। यह स्वरूप देवी का प्रलंयकारी है। लेकिन देवी कहती हैं कि मृत्यु सभी की निश्चित है। जो आया है, उसका अंत तय है। देवी का यह स्वरूप प्राणी को अहं को मारने के लिए प्रेरित करता है। जिसके अंदर भी मैं है, देवी उस मैं का अंत करती हैं। मैं का स्थान मस्तक है। मस्तिष्क है। इंसान सोचता है कि सबका भले ही अंत हो जाये, उसका अंत तो हो ही नहीं सकता। वह अपने कार्य को सर्वश्रेष्ठ मानता है। अपने मैं में खोया रहता है। देवी इस अहंकार को चूर करती हैं। छिन्नमस्ता देवी सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका यह स्वरूप प्रचंड डरावनी, भयंकर और उग्र है। इसी तरह का स्वरूप चंडिका देवी का भी है। अंतर केवल इतना है कि चंडिका देवी की पूजा गृहस्थों के लिए वर्जित नहीं है जबकि छिन्नमस्ता की कठिन साधना होने के कारण गृहस्थों को करने के लिए नहीं कहा जाता है।



आत्म नियंत्रण की देवी हैं छिन्नमस्ता


छिन्नमस्ता दो शब्दों से बना हैं : छिन्न और मस्ता अर्थात जिनका मस्तक देह से पृथक हैं वह छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचंड चंडिका जैसे नामों से जानी जाती हैं। वह दश महाविद्याओं में पांचवे स्थान पर हैं। समस्त देवी-देवताओं से देवी का यह स्वरूप सबसे पृथक है। उनके इस स्वरूप को देखकर असुर भयभीत होते हैं। देवी ब्रह्मांड को परिवर्तित करती हैंऔर उसको चलायमान करती हैं। वह सृजन और विनाश के रूप में हैं। देवी परम सत्य की ओर संकेत देती है। परम सत्य क्या है? निश्चित ही मृत्यु ही जीवन और परम सत्य है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। देवी छिन्नमस्ता की पूजा करने वाले को मृत्यु का भय नहीं रहता। उसकी समस्त इंद्रियां और कामेंद्रियां नियंत्रित रहती हैं। वासना यानी काम पर विजय पाने के लिए भी छिन्नमस्ता की आराधना श्रेष्ठ है। इनकी पूजा से आत्म नियंत्रण बढ़ता है। अनुचित इच्छाओं का दमन होता है। समस्त प्रकार के अहंकार को छिन्न-छिन्न करती हैं देवी छिन्नमस्ता। उत्पत्ति या वृद्धि होने पर देवी भुवनेश्वरी का प्रादुर्भाव होता हैं तथा विनाश या ह्रास होने पर देवी छिन्नमस्ता का प्रादुर्भाव माना जाता हैं। उनका स्थान मणिपुर चक्र में है।


दस महाविद्या की आराधना


नवरात्रि के पहले दिन मां आदिशक्ति को काली गाय का शुद्ध घी या फिर सफेद मिठाई अर्पित करें। दूसरे दिन नवरात्रि के दिन तारा देवी को शक्कर का भोग लगाएं और भोग लगाने के बाद इसे घर-परिवार के लोगों में वितरित करें। इससे उम्र में वृद्धि होगी। नवरात्रि के तीसरे दिन मां की षोडशी विद्या का पूजन करें। इस दिन देवी मां को दूध या दूध से बनी मिठाई या खीर का भोग लगाएं और इसे ब्राह्मणों को दान करें। ऐसा करने से दुखों से मुक्त मिलेगी। चतुर्थ नवरात्रि के दिन मां के भुवनेश्वरी विद्या का पूजन करें और मालपुए का भोग लगाए। इससे बुद्धि का विकास होगा और निर्णय लेने की शक्ति बढ़ेगी। गुप्त नवरात्रि के पांचवें दिन माता छिन्नमस्ता को केले के नैवेद्य का भोग लगाएं। इससे शरीर स्वस्थ रहेगा। इसी तरह नवरात्रि के छठे दिन मां त्रिपुर भैरवी को शहद का भोग लगाएं। कहते हैं कि इससे आकर्षण शक्ति में वृद्धि होती है। सातवें दिन मां धूमावती को गुड़ का नैवेद्य चढ़ाएं और बाद में इसे ब्राह्मणों को दान कर दें। इससे शोक से मुक्ति मिलेगी और अचानक आने वाले संकटों से भी रक्षा होगी। गुप्त नवरात्रि के आठवें दिन श्री बगलामुखी को पीली बर्फी का भोग लगाए। ऐसा करने से घर परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ेगी। इस तरह नवमीं पर मां मातंगी को नारियल का भोग लगाकर दान करें। इससे संतान संबंधी परेशानियों से मुक्ति मिलेगी। गुप्त नवरात्रि के आखिरी दिन देवी कमला को पूरी-चने व हलवे का भोग लगाए और कन्या पूजन करें।


दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है मां छिन्नमस्तिके रजरप्पा मंदिर


झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर आस्था की धरोहर है। असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय हैं। रजरप्पा का यह सिद्धपीठ केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है। छिन्नममस्तिके मंदिर के अलावा यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल 7 मंदिर हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर में मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के समीप ही छिन्नमस्तिके का मंदिर स्थित है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है। मंदिर के निर्माण का के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण 6000 वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। यह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। मंदिर में प्रात: काल 4 बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाला से सुशोभित है। 


पौराणिक कथा


कथा के अनुसार एक बार भगवती भवानी अपनी सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्थान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा। बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से ३ धाराएं निकली। वह 2 धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं। तभी से ये छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं। 
एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे। रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक कन्या देखी। उसने राजा से कहा- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा भयभीत हो उठे। राजा को देखकर देख वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं। कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं। इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया।