चंद्रमा को अपने माथे पर सजाकर श्वेत प्रकाश से धरती होती है प्रकाशमय


गुप्त नवरात्रि की चौथी आद्य महाविद्या भुवनेश्वरी देवी जो दस महाविद्याओं में से एक है जो चौथे स्थान में विराजित है। ये देवी के अवतार आदि शक्ति का रूप है, जो शक्ति का आधार है। इन्हें ओम शक्ति भी कहा जाता है। भुवनेश्वरी देवी को प्रकृति की माँ माना जाता है, जो समस्त प्रकृति को संभालती है। ये भगवान शिव की अभिव्यक्ति है, इन्हें सभी देवियों से कोमल एवं उज्जवल माना जाता है। भुवनेश्वरी देवी ने चंद्रमा को अपने माथे में सजाया हुआ है, और इसके श्वेत प्रकाश से वे समस्त धरती को प्रकाशमय करती है। इन्हें सभी देवियों में उत्तम माना जाता है, जिन्होंने समस्त धरती की रचना की और दानव शक्तियों को मार गिराया। जो इस देवी शक्ति की पूजा करता है, उसे शक्ति, बुद्धि और धन की प्राप्ति होती है। भारत के दक्षिण में केरल में इन्हें शक्तास के नाम से जानते है, और इनकी उपासना करते है।


दान का महत्व


मानव जाति के लिए सबसे शांति एवं आनंदमय काम है, दान दक्षिणा देना। इससे आत्मिक शांति मिलती है। वैसे भक्त जो चाहें अपनी मर्जी से दान कर सकते है। दान कुछ भी दिया जाये, लेकिन उसे पुरे मन एवं श्रद्धा के साथ देना चाहिए। भुवनेश्वरी देवी की पूजा करने से मानवजाति की हर मनोकामनायें पूरी होती है। देवी भुवनेश्वरी, हर शैतानी ताकत एवं श्राप से अपने भक्तों की रक्षा करती है। साथ ही जीवन एवं मृत्य के हर डर को उनसे दूर करती है। इनके बीज मन्त्र द्वारा ही ब्रह्मांड की रचना हुई थी। इन्हें राजेश्वरी पराम्बा के नाम से भी जानते है। भुवनेश्वरी देवी बहुत कोमल स्वभाव की है, जो अपने हर एक भक्तों के प्रति सहानुभूति रखती है। ये अपने भक्तों को बुद्धि एवं ज्ञान देती है, साथ ही मोक्ष पाने में उनकी मदद करती है।



भुवनेश्वरी का अर्थ


कहा जाता है, भुवनेश्वरी जयंती के दिन स्वयं देवी धरती पर आती हैं। भुवनेश्वरी का मतलब होता है, समस्त ब्रह्मांड की रानी। कहते है, भुवनेश्वरी देवी समस्त ब्रह्मांड पर राज्य करती है, वे अपने नियम एवं आज्ञा समस्त प्रथ्वी को देती है। वे अपनी इच्छा अनुसार पारिस्थितियों को नियन्त्रण में करती है, साथ ही मोड़ देती है। समस्त ब्रह्मांड उनके शरीर का हिस्सा है और सभी प्राणियों को वे गहने के रूप में धारण किये हुए है। वे समस्त ब्रह्मांड की रक्षा ऐसे करती है, जैसे वो एक कोमल फूल है, और जिसे उन्होंने अपने हाथ में संभाले रखा है।


देवी का स्वरूप


भुवनेश्वरी देवी गायत्री मंत्र में विशेष स्थान रखती है। इनका एक चेहरा, 3 आँखें और चार हाथ है। जिसमें से दो हाथ वरद मुद्रा एवं अंकुश मुद्रा भक्तों की रक्षा और आशीर्वाद देते है, जबकि बाकि दो हाथ पाश मुद्रा एवं अभय मुद्रा दानव, असुरों का संहार करते है। वे सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक है। इनका शारीरिक रंग गहरा है, इनके नाखूून समस्त ब्रह्मांड को दर्शाते है। इनके चेहरे में एक चमक है, एक तेज है। इन्होने चंद्रमा को मुकुट के रूप में धारण किया हुआ है।


शक्ति सृष्टि और माया की रानी भुवनेश्वरी


आद्यशक्ति मां भुवनेश्वरी देवी प्यार की शक्ति सृष्टि व माया की रानी है, वह उगते सूरज की लाल किरणों की तरह है, उसके मुकुट के रूप में चाँद और तीन नेत्र है. इनके हाथों में अंकुश, पाश, वर और अभय है. भुवनेश्वरी देवी का मंदिर मणिकूट पर्वत की एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ मां भुवनेश्वरी देवी मंदिर वर्तमान में योग अध्यात्म व तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। उत्तराखण्ड का मुख्य द्वार कहे जाने वाले ऋषिकेश से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित चन्द्रकूट पर्वत के शिखर  मां भगवती का यह सिद्ध शक्तिपीठ है। आदि शक्ति भुवनेश्वरी भगवान शिव की समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। मां का स्वरूप सौम्य एवं अंग कांति अरूण हैं। भक्तों को अभय एवं सिद्धियां प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है। इस महाविद्या की आराधना से जहां साधक के अंदर सूर्य के समान तेज और ऊर्जा प्रकट होने लगती है, वहां वह संसार का सम्राट भी बन सकता है। इसको अभिमंत्रित करने से लक्ष्मी वर्षा होती है और संसार के सभी शक्ति स्वरूप महाबली उसका चरणस्पर्श करते हैं। मां भुवनेश्वरी भगवती देवी के मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा शोभायमान है। तीनों लोकों की प्रजा का भरण-पोषण करने वाली वरदा यानी वर देने की मुद्रा अंकुश पाश और अभय मुद्रा धारण करने वाली भुवनेश्वरी तुंगकुचा यानी अपने तेज एवं विकास पूर्ण यौवन और तीन नेत्रों से युक्त हैं। देवी अपने तेज से देदीप्यमान हो रही हैं। प्रलयकाल में जो भुवन जल मग्न हो गए थे, वे आज देवी की कृपा से विकासशील हो रहे हैं।


पौराणिक मान्यता


यहां प्रचलित एक मान्यता के अनुसार यहां दक्ष प्रजापति का 'बृहस्पतिसवÓ नामक यज्ञ हो रहा था। यज्ञ को देखने की इच्छा से कैलास पर्वत से दक्ष प्रजापति की कनिष्ठ पुत्री दाक्षायणी भी आई। वहां किसी ने उसका आदर नहीं किया। पिता (दक्ष प्रजापति) के द्वारा आदर न किए जाने पर दाक्षायणी ने उत्तर दिशा की ओर मुंह कर कुशा के आसन पर बैठकर शिवजी के कमलरूपी चरणों का ध्यान किया। समाधिजन्य अग्नि से पापरहित होकर सती ने अपना शरीर जला दिया। इसका वर्णन श्रीमद्भागवद् के स्कंध 4 अध्याय 4 में विस्तार पूर्वक किया गया है। उल्लेखनीय है कि शिव पुराण में भी बिल्व क्षेत्र का वर्णन है। यह बिल्व क्षेत्र 'बिलखेतÓ है। दक्ष प्रजापति का छह महीने का निवास स्थान दैसण है। दक्ष का जहां गला कटा, वह निवास स्थल अथवा उत्पत्तिस्थल सतपुली हुआ। अत: सती का यह मंदिर भुवनेश्वरी का मंदिर कहलाया, ऐसा लक्षित होता है। चूंकि सती अग्नि समाधि अवस्था में उत्तर की ओर मुंह करके बैठी थीं, इसीलिए इस मंदिर का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है। इसी मंदिर के समीप अभी भी विशालकाय वट वृक्ष विद्यमान है जिसके नीचे बैठकर भगवान शंकर ने सती को अमर कथा सुनाई थी। एक आम कथा के अनुसार देवी सती के 108 अवतार हुए। जब 107 अवतार हो गये और 108वें अवतार का समय आया तो नारद ने सती को शिव के गले में पड़ी मुण्डमाला के विषय में शिव से जिज्ञासापूर्ण प्रश्न करने के लिए कहा। देवी सती के पूछने पर शिवजी ने कहा- इसमें कोई शंका नहीं है ये सब तुम्हारे ही मुण्ड हैं। यह सुनकर सती बड़ी हैरान हुईं। उन्होंने फिर शिव से पूछा- क्या मेरे ही शरीर विलीन होते हैं? आपका शरीर विलीन नहीं होता? आपका शरीर नष्ट क्यों नहीं होता? शिव ने उत्तर दिया देवी! क्योंकि मैं अमर कथा जानता हूं अत: मेरा शरीर पञ्चतत्व को प्राप्त नहीं होता। सती बोली- भगवान! इतना समय व्यतीत होने पर अब तक वह कथा आपने मुझे क्यों नहीं बताई? शिवजी ने कहा- इस मुण्डमाला में 107 मुण्ड हैं। अब एक मुण्ड की आवश्यकता है इसके बाद ये 108 हो जायेंगे। तब यह माला पूर्ण हो जायेगी अगर सुनना चाहती हो तो मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं किन्तु बीच-बीच में तुम्हें हुंकारे भी देने होंगे।