भगवान शिव ने रावण की नाभि में की थी अमृत कुंड की स्थापना

एक समय की बात है जब लंकापति रावण भगवान शिव शंकर की तपस्या करने के लिए हिमालय के कैलाश पर्वत पर गए। कैलाश पर्वत जिसे भगवान शिव शंकर और माता पार्वती का आवास स्थान माना गया है। रावण ने वहां कई दिनों तक कठिन तपस्या की। रावण की कठिन तपस्या देख भगवान शिव बहुत खुश हो गए और उसे बोलें की मांगों कोई वरदान। यह सुन कर रावण ने शिव जी से कहा की आप मेरे साथ लंका चलो। शिव जी ने उसकी यह इच्छापूर्ण की और शिवलिंग के रूप में रावण के साथ जाने को त्यार हो गए। परन्तु शंकर जी ने रावण के समक्ष एक बात रखी और वो यह थी कि अगर लंका पहुंचने से पहले रावण ने शिवलिंग को पृथ्वी पर कही भी रखा तो शिवलिंग की स्थापना उसी जगह हो जाएगी। यह बात लंकापति लंकेश्वर द्वारा स्वीकार की गयी और वे कैलाश पर्वत से लंका की ओर चल पड़े।

सफर बहुत लम्बा होने के कारण रावण थक गया और थककर वह पर्वतों और झीलों की नगरी उदयपुर से लगभग 80 किलोमीटर दूर झाडौल तहसील में आवरगढ़ की पहाडिय़ों पर रुक गया। और न चाहते हुए भी रावण ने शिवलिंग को धरती पर रख दिया, जिससे वह उसी जगह स्थापित हो गया। जैसे ही रावण आराम करने के बाद शिवलिंग को उठाने का प्रयत्न करता है. वह उसे उठाने में असमर्थ होता है। तब रावण को भगवान शिव द्वारा कही गई बात का स्मरण हुआ और उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। अपनी गलती का पश्चाताप करने हेतु रावण उसी स्थान पर तपस्या करने लग गया। प्रतिदिन वह 100 बार कमल के पुष्पों के साथ भगवान शिव की पूजा किया करता था। तपस्या करते करते रावण को साढ़े बारह वर्ष हो गए। रावण की तपस्या पूरी न हो जाए इसलिए ब्रह्माजी ने रावण की तपस्या भंग करने के बारे में सोचा। उन्होंने एक दिन रावण की तपस्या के समय एक कमल का फूल कम कर दिया और एक फूल कम होने की वजह से रावण ने अपना एक शीश काटकर भगवान शिव को अग्नि में अर्पण कर दिया। भगवान शिव यह सब देख बहुत प्रसन्न हुए और रावण को वरदान के रूप में उसकी नाभि में अमृत कुंड की स्थापना कर दी। अब उस स्थान को कमलनाथ महादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। कमलनाथ महादेव मौदर की विशेषता यह है कि यहाँ भोलेनाथ से पहले लंकापति नरेश रावण की पूजा की जाती है और मान्यता के अनुसार गई तो सारी पूजा व्यर्थ है। कमलनाथ महादेव मंदिर के मंदिर तक अपने वाहन से जाया जा सकता है, आखरी के 2 किलोमीटर पद यात्रा करनी पड़ती है। पुराणों के अनुसार एक बात का पता चला कि भगवान श्री राम ने अपने वनवास का कुछ समय इसी जगह पर भोगा था।