जब गौतम बुद्ध ने जीवाका को किया परे नम्बर से पास


अत्रेय तक्षशिला विश्वविद्यालय में वैद्यकीय आचार्य थे। वह अपने सभी विद्यार्थियों को मेहनत से पहाते और उनकी कड़ी परीक्षा लेते। वह जानते थे कि एक तरफ जहां वैद्यकीय ज्ञान मानव सेवा का सर्वोत्तम माध्यम है वहीं ज्ञान की जरा सी कमी समाज के लिए अमानवीय है। इसलिए वे शिष्यों को काफी जांच के बाद ही सर्टिफिकेट देते थे। उनके शिष्यों में जीवाका नाम का भी एक छात्र था जो कुशल वैद्य बनने के लिए हमेशा कोशिश करता रहता था। इसी के चलते उसका ज्ञान दिन दूना-रात चौगुना बढ़ने लगा। उसकी प्रवीणता को देखकर अत्रेय के अन्य शिष्य उससे जलने लगे। सात वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद जीवाका सहित दूसरे स्टूडेंट्स का कोर्स पूरा हो गया तो अत्रेय ने परीक्षा की ठानी। उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, 'मुझे एक ऐसा पौधा चाहिए जिसका उपयोग इलाज में नहीं होता।' यह सुनते ही सभी शिष्य पौधे की तलाश में निकल पड़े। थोड़े ही दिनों में सब अपने-अपने पौधे के साथ वापस आ गए। लेकिन जीवाका छह महीने तक जंगल-जंगल पौधों को तलाशता, उनसे रसायन बनाता और उससे संबंधित पीड़ा वाले मरीजों पर उन रसायनों का प्रयोग करता। छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद भी उसे ऐसा एक भी पौधा नहीं मिला जिसका उपयोग रसायन बनाने और किसी न किसी तरह की शारीरिक पीड़ा खत्म करने में न होता हो। अंत में निराश होकर वह अत्रेय के पास अपनी असफलता मानने के लिए पहुंचा और बोला, 'गुरुजी, मुझे क्षमा करें क्योंकि मैं आपका आदेश पूरा नहीं कर सका।' सभी शिष्यों के चेहरे पर खुशी झलक रही थी, लेकिन जीवाका उदास था। इस पर अत्रेय मुस्कुराए और बोले, 'जीवाका, तुम पूरे नंबर से पास हुए। जाओ, अपने ज्ञान का उपयोग लोगों की पीड़ा हरने में करो।' यही जीवाका आगे जाकर बिंबसार व भगवान बुद्ध का वैद्य बना और उसने कभी किसी बीमार को निराश नहीं किया।