सोने की मूर्ति से निकली दुर्गंध, भागने लगे राजा

राजकुमारी मल्लिनाथ जैनों की उन्नीसवीं तीर्थंकर मानी जाती हैं। सुंदर होने के साथ वह विदुषी भी थीं। उनके सौंदर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह के लिए राजकुमारों के प्रस्ताव आने लगे, किंतु उनके पिता मिथिलानरेश कुंभा ने उन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। इससे वे राजकुमार नाराज हो गए और उन्होंने मिथिला पर आक्रमण कर दिया। अकेले राजा उन सबका मुकाबला करने में असमर्थ थे।



अपने पिता को पराजित होते देख मल्लिनाथ ने सभी राजाओं को राजमहल के एक कमरे में बुलवाया। वे राजा कमरे में खड़ी मल्लिनाथ का अनुपम सौंदर्य देखकर दंग रह गए। लेकिन उन्हें यह देख और आश्चर्य हुआ कि हूबहू वैसी ही आकृति द्वार के अंदर से आ रही है। यह और कोई नहीं स्वयं मल्लिनाथ थीं, कमरे में उनकी स्वर्ण प्रतिमा रखी हुई थी। मल्लिनाथ अंदर आईं और उन्होंने प्रतिमा के सिर का ढक्कन खोल दिया। इससे कमरे में इतनी दुर्गंध भर गई कि सबका वहां बैठना मुश्किल हो गया। सबने नाक-भौं सिकोड़ी और वे वहां से जाने लगे। राजाओं को जाता देख मल्लिनाथ बोलीं, 'यह दुर्गंध इस स्वर्ण-प्रतिमा के मुख में डाली हुई सड़ी वस्तु की थी। जब इसकी दुर्गंध असह्य हो सकती है, तब यह भी सत्य है कि मनुष्य देह में संचित नाना द्रव्यों की दुर्गंध असहनीय हो सकती है। आप लोग मेरे बाह्य सौंदर्य पर मुग्ध हैं, मगर इस शरीर में भी सड़ा-गला तत्व विद्यमान है।
सांसारिक सुख-भोग क्षणिक रहता है और वह मनुष्य को पाप की गर्त की ओर ले जाता है। इसीलिए मैंने निश्चय किया है कि राजसी सुख-वैभव त्यागकर साधुओं जैसा निर्मल जीवन व्यतीत करू। आपकी भलाई भी इसी में है कि सत्कर्म करते हुए आप प्रजा की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखें।' इन शब्दों का इतना असर पड़ा कि उनमें से कई राजाओं ने अपना राजपाट उत्तराधिकारियों को सौंप दिया और जैन भिक्षु बन गए।