मंत्री अफसरों से परेशान, सीएम के पास बढ़ रही शिकायत

भोपाल। मप्र के कैबिनेट की बैठक में करीब आधे से अधिक मंत्रियों ने मुख्यमंत्री कमलनाथ से शिकायत की है कि उनके विभाग के प्रमुख सचिव उनकी कोई सुनवाई नहीं करते हैं। 8 जुलाई से मप्र विधानसभा में बजट सत्र आरंभ हो रहा है और ऐसे में इस कैबिनेट बैठक में मंत्रियों ने आरोप लगाया कि अफसरों ने उन्हें उनके ही विभाग के बजट प्रस्ताव नहीं बताए और मुख्य बजट में शामिल कर दिए।


 



सीएम के अलावा किसी की सुनते नहीं अफसर
आलम यह था कि राजधानी भोपाल में बीजेपी सरकार के आखरी कार्यकाल मे अधिसंख्य बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जाना तक बंद कर दिया था। मंत्रियों से कार्यकर्ताओं का संवाद रस्मी भर रह गया था अफसरों की मनमानी कार्यशैली ने जो नकारात्मक माहौल मप्र बीजेपी वर्कर्स के बीच निर्मित किया उसका नतीजा रहा कि सिर्फ प्रत्याशियों के निजी लोग ही विधानसभा चुनाव में काम करते दिखे। बता दें कि कांग्रेस की तुलना में तीन गुना बागी बीजेपी से अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ मैदान में थे। मंत्रियों के विरुद्ध कार्यकर्ताओं के आक्रोश का आलम यह था कि शिवराज सरकार के 13 मंत्री चुनाव हार गए और तथ्य यह है कि 7 सीटों की कमी से शिवराज सरकार बनाने से चूक गए।



अफसरशाही का काम और राजनेता 
अफसरशाही इस काम को पूरी तन्मयता से करती है मंत्री खुश हो जाते हैं कि चलो अपने इलाके में तो काम हो गया। यह हालत हर विभागीय मंत्री की रहती है और यही पेंच है जिससे अफसर आगे चलकर शेष मामलों में खुद मंत्री, विधायक और आम पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए खलनायक बन जाते हैं। रही-सही कसर तबादलों और दूसरे कामों में बने अलाइंस से पूरी हो जाती है और सरकार चलती रहती है उसी ढर्रे पर जिसका कोई जनोन्मुखी सरोकार नहीं होता।



शिव-राज जैसे हाल 
कमोबेश ऐसे ही हालात मप्र की मौजूदा कमलनाथ सरकार में बनते दिख रहे हैं। प्रदेश के खाद्य मंत्री ने कैबिनेट बैठक में हीं अफसरों की मनमानी का मामला उठाया। चिकित्सा शिक्षा मंत्री भी प्रमुख सचिव की मनमानी की बात कह चुकी हैं इनसे पूर्व भी बैठक में अफसरशाही द्वारा सुनवाई नहीं करने की बात मंत्रियों ने उठाई थी जिसे लेकर कैबिनेट में जबरदस्त विवाद हो चुका है। कैबिनेट  मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर सार्वजनिक रूप से कह चुके है कि जब विभाग के अफसर सुनते ही नहीं हैं तो विभाग चलाएं कैसे... दरअसल, मप्र में अफसरशाही का मॉडल जिस रूप में काम कर रहा है उसके मूल में मुख्यमंत्रियों की अफसरपरस्त नीति ही रही है। लगातार लंबे समय तक मुख्यमंत्रीयो का कार्यकाल भी एक अहम कारण है। 10 साल तक सीएम रहे दिग्विजय सिंह का दूसरा कार्यकाल भी अफसरशाही के वर्चस्व के चरम दौर का गवाह रहा है जब भोपाल में एक वर्ग विशेष के सीनियर आईएएस अफसर ही मुख्यमंत्री के नाक,कान औऱ आंख हुआ करते थे। इन्हीं अफसरों ने भोपाल डिक्लेयरेशन जैसे प्रयोग कराए जिसके चलते पूरे प्रदेश से कांग्रेस का सामाजिक रूप से सफाया हो गया था 2003 तक आते-आते खुद कांग्रेसी वर्कर सरकार  के विदाई गीत गाने लगे थे। कहा जाता है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह प्रतिदिन जिलों के डीएम और एसपी से फोन पर बात करते थे। नतीजतन सरकार में कांग्रेसी नेताओं की बात का कोई वजन नहीं रहता था। कई मंत्री अपने ही जिलों में असहाय नजर आते थे। शिवराज सरकार के अंतिम दौर में भी लोग इस स्थिति को दिग्विजय पार्ट-2 कहकर रेखांकित करते थे। 



बीजेपी सरकार में भी रही है प्रदेश में अफसरों की मनमानी 
प्रदेश में बड़े अफसरों की मनमानी का यह पहला मौका नहीं है जब चुने हुए जनप्रतिनिधियों यहां तक की शासन के कैबिनेट मंत्रियों को इस तरह सार्वजनिक रूप से अपनी पीड़ा बयान करनी पड़ी हो। 15 साल तक बीजेपी सरकार में कुछ अफसर इतने अधिक पावरफुल रहे कि वे सीएम के अलावा किसी की नहीं सुनते थे। शिवराज सिंह के कार्यकाल के अधिकतर पावरफुल अफसर कमलनाथ की सरकार में भी अपनी उसी पोजिशन को बनाए रखने में कामयाब हैं। सीएम सचिवालय में जिस एक अफसर से सबसे ज्यादा बीजेपी विधायक परेशान रहते थे वह आज भी कमलनाथ के सबसे नजदीकी है और शिकायती चेहरे बीजेपी की जगह कांग्रेस के हो गए हैं। इसका मतलब यही है कि वक्त है बदलाव का नारा देकर सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के लिए बदलाव के लिए तगड़ी चुनौती मिल रही है। जनता ने अफसरशाही की इसी अकर्मण्यता और जड़ता से आजिज आकर शिवराज सरकार को हटाया था। यही नहीं बीजेपी का कैडर भी शिवराज सरकार के तीसरे कार्यकाल से बहुत दुखी था क्योंकि अफसर शाही बुरी तरह हावी थी। बीजेपी वर्कर निजी रूप से सरकार की विदाई पर बहुत अफसोसज़दा नजर नहीं थे।



अफसरशाही और सियासत 
अब सवाल यह है कि अफसरशाही पर इस हद तक निर्भरता क्या वाकई जमीनी हकीकत से सत्ता प्रतिष्ठान को दूर कर देती है? दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह के संदर्भ में इसका विश्लेषण किया जाए तो इस तथ्य को हमे स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि दोनों एक से अधिक कार्यकाल के लिए सीएम रहे है और दोनो थोपे गए सीएम नहीं थे बल्कि जनसंघर्षों औऱ संगठन से निकले हुए नेता हैं लेकिन संगठन और सरकार की संरचनात्मक व्यवस्था के बुनियादी अंतर को प्रवीणता से भेदने में सफल नहीं रहे हैं। दरअसल, अफसरशाही जड़ता औऱ स्वश्रेष्ठता के जन्मजात अवगुण को धारित करती है उसका नजरिया आज भी अधिकांशत: औपनिवेशिक है और सत्ता में बैठे लोगों को वह कम अक़्ली, भ्रष्ट,औऱ अस्थाई  मानती है। यूं तो विधान बनाना चुने हुए नेताओं का काम है लेकिन नेता भी जिस असुरक्षा की ग्रन्थि से पीडि़त रहते हैं उसके दबे तले वे कानूनों के मकडज़ाल में ऐसे उलझकर रह जाते हैं कि वे अपने नजदीकी औऱ ज्यादा से ज्यादा अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोग को संतुष्ट करने तक सिमट कर रह जाते हैं। 5 साल की असुरक्षा से खुद को बचाने के फेर में नेतागण कभी अफसरशाही के आगे आंख में आंख मिलाकर बात ही नहीं कर पाते हैं। मसलन फ्लेगशिप योजनाओं के लाभ अपने वोटरों को ज्यादा से ज्यादा मिल जाए, सडक़, बिजली,पानी,की योजनाएं सर्वाधिक अपने इलाके को मिल जाए यही बुनियादी मानसिकता मंत्रियों को अफसरशाही की गिरफ्त में लाकर खड़ा कर देता है। इस तथ्य को यूं समझिए की जो भी प्रदेश का उच्च शिक्षा मंत्री बनता है वह सबसे पहले अपने इलाके में कॉलेज खोलता है। अपने क्षेत्र में प्रोफेसर के ट्रांसफर करा लेता है और अपने विभाग के बजट से नई बिल्डिंग स्वीकृत करा लेता है ताकि कल को कोई मंत्री जी को उलाहना न दे सके कि मंत्री रहकर आपने किया क्या? अपने घर में। 



कलेक्टर नामक संस्था और योजनाओं का मकडज़ाल 
जिलों में योजनाओं का क्रियान्वयन जिला अधिकारियों के हवाले रहता है। कलेक्टर नामक संस्था सदैव अपने मातहतों को सरंक्षण देती है और नतीज़तन बेख़ौफ़ सरकारी तंत्र अपनी मनमानी पर उतारू रहता है।मिसाल के तौर पर शिवराजसिंह ने विधवा पेंशन को कल्याणी योजना में तब्दील कर बड़ी-बड़ी घोषणाएं की। अफसरों ने जो ड्राफ्ट बनाकर भेजा उसमें  शर्त लगा दी कि 60 साल की आयु होना चाहिए की हितग्राही की। जब एक विधायक ने अपने इलाके की 50 से अधिक उन विधवाओं के केस अधिकारियों के पास भेजे जो 60 साल से कम आयु की थी तो उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। विधायक को अफसरों ने कानून दिखा दिया। जमीनी हकीकत यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर आदिवासियों, दलितों में महिलाएं औसत 45 साल में विधवा हो जाती है लेकिन इस जमीनी हकीकत से राजधानी में बैठे अफसर वाकिफ नही होते है। अगर विभागीय मंत्री मैदानी दौरे करें तो ऐसी हजारों विसंगतियों से दो चार हो सकते हैं। एक बार सरकारी ड्राफ्ट फाइनल होकर प्रसारित हो जाता है उसे बदलने का कोई सरल तरीका इस मकडज़ाल में नहीं है। योजनाओं के मकडज़ाल को समझने के लिए मानवीय मस्तिष्क सक्षम ही नहीं है। मसलन महिला बाल विकास विभाग में महिला सशक्तिकरण, अटल आरोग्य मिशन, राष्ट्रीय पोषण मिशन, समेकित बाल सरंक्षण योजना,समेकित बाल विकास योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सबला,लालिमा,जैसी करीब 25 योजनाएं संचालित है। अमूनन हर विभाग में ऐसी ही योजनाओं की भरमार है और इनमें आपस में कोई समन्वय नही है। अफसरशाही ऐसे ही योजनाओं का मकडज़ाल खड़ी करती है ताकि आम आदमी तो क्या मंत्री भी इसमें खुद को असहाय समझता है, क्योंकि मंत्रालय और मुख्यमंत्री तक कि जटिल राह पर पहुंच पाना हर मंत्री विधायक के वश में नहीं है।