नारद ने श्रीहरी को दिया श्राप

एक बार नारद जी को घमंड हो गया और भगवान शंकर को कहने लगे कि उनकी तपस्या को कोई भी भंग नहीं कर सकता है। शिव जी ने उनसे कहा कि यह बात श्रीहरि के सामने प्रकट मत करना। देवर्षि जब विष्णु जी के पास गए और उनके समक्ष भी वही बातें कहना शुरु कर दी।



भगवान समझ चुके थे कि नारद को घमंड हो गया है। विष्णु जी ने सोचा कि नारद का घमंड तोडऩा ही होगा, यह शुभ संकेत नहीं हैं। श्रीहरि की माया से देवर्षि एक सुंदर नगर में पहुंचे। जहां किसी राजकुमारी के स्वयंवर का आयोजन किया जा रहा था। नारद जी उस राजकुमारी को देख कर मोहित हो गए थे। उसका रूप और सौंदर्य नारद की तपस्या को भंग कर चुका था। अब वे भी उसके स्वयंवर में जाना चाहते थे।
वह वापिस भगवान विष्णु के पास आए और कहा कि आप अपना सुंदर रूप मुझे दे दीजिए, जिससे वह कन्या मुझे ही अपने पति के रूप में चुने। भगवान ने भी ऐसा ही किया। किंतु स्वयंवर में जब वह पहुंचे तो उनका मुख वानर के जैसा हो गया था। यह सब शिवगण देख रहे थे, जोकि ब्राह्मण का वेष बनाकर वहां शमिल थे। जब राजकुमारी स्वयंवर में आई तो बंदर के मुख वाले नारदजी को देखकर बहुत क्रोधित हुई। श्रीहरि भी वहां एक राजा के रूप में खड़े थे। राजकुमारी ने उन्हें अपने पति के रूप में चुन लिया। देवर्षि को इस बात का गुस्सा आया कि राजकुमारी ने उनकी बजाए किसी ओर को अपना वर चुना। यह देखकर शिवगण नारदजी की हंसी उड़ाने लगे और कहा कि पहले अपना मुख दर्पण में देखिए। जब उन्होंने अपना मुख देखा तो बहुत क्रोधित हुए। नारद जी ने शिवगणों को उसी समय राक्षस योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया। इसके बाद वह भगवान नारायण के पास पहुंचे और उन्हें बुरा-भला कहने लग गए। माया से मोहित होकर नारद मुनि ने श्रीहरि को श्राप दिया कि- जिस तरह आज मैं स्त्री के लिए व्याकुल हो रहा हूं, उसी प्रकार मनुष्य जन्म लेकर आपको भी स्त्री वियोग सहना पड़ेगा। उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। भगवान विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो और नारद जी को माया से मुक्त कर दिया। तब देवर्षि को अपने कटु वचन और व्यवहार पर बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी।ं